27 अगस्त को गणेश चतुर्थी का पर्व है। इस दिन भगवान गणेश को मोदक, दूर्वा आदि अर्पित की जाती है, लकिन इस दिन गणेश जी को तुलसी अर्पित नहीं की जाती है। तुलसी भगवान विष्णु की प्रिय है, लेकिन तुलसी गणेश जी को अर्पित नहीं की जाती है। इसके पीछे पुराणों में एक कथा कही गई है। जो इस प्रकार है- एक समय की बात है । तुलसीदेवी नारायणपरायण हो तपस्या के लिए तीर्थो में भ्रमण करती हुई गंगा-तट पर जा पहुंचीं । वहं उन्होंने गणेशजी को देखा, जो अत्यन्त सुंदर, शुद्ध और पीताम्बर वस्त्र धारण किए हुए थे, जो रत्न-आभूषणों पहने हुए थे। वे श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान कर रहे थे। उन्हें देखते ही तुलसी का मन गणेश को ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी ने उनसे लम्बोदर और गजमुख होने का कारण पूछकर, उनका उपहास करने लगी । ध्यान-भंग होने पर गणेशजी ने पूछा कि हे देवी तुम कौन हो ? यहां तुम्हारे आने का क्या कारण है, माता! यह मुझे बतलाओ। उन्होंने कहा कि तपस्वी का ध्यान भंग करना सदा पापजनक और अमंगलकारी होता है।
इस पर तुलसी ने कहा-मैं पति-प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही हूं। अतः आप मेरे स्वामी हो जाइए । तुलसी को बात सुनकर अगाध बुद्धिसम्पन्न गणेश श्रीहरिका स्मरण करते हुए तुलसी से मधुरवाणी में बोले-हे माता! इस विषय में मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है। इसलिए मेरी ओरसे मन लौटा लो । गणेशजी के ऐसे वचन सुनकर तुलसी को क्रोध आ गया। तब वह साध्वी गणेशको श्राप देते हुए बोली- तुम्हारा विवाह होगा।’ गणेशजी ने भी तुलसी को श्राप दिया -हे देवी तुम निस्संदेह असुर द्वारा ग्रस्त होगी । तत्पश्चात् महापुरुषों के शापसे तुम वृक्ष हो जाओगी।’उस श्राप को सुनकर तुलसी ने फिर उस सुरश्रेष्ठ गणेशकी स्तुति की। तब प्रसन्न होकर गणेश ने तुलसीसे कहा।
गणेश बोले– तुम कलांश से स्वयं नारायण की प्रिया बनोगी। यों तो सभी देवता तुमसे प्रेम करेगे, परंतु श्रीकृष्ण के लिए तुम विशेष प्रिय होगी। तुम्हारे द्वारा की गई पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी ओर मेरे लिये तुम सर्वदा त्याज्य रहोगी। कथा का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में किया गया है।